गिरी की गोद में - Giri ki Goud Main
Hindi Kavita by Shri Ashik Vyas (New York)
१.
भारत यात्रा
यह तुम्हारी मुझे समर्पित है
है ना !
फिर क्यूं
देते अनुमति मन को
करे चिन्तन
मेरे सिवा
कुछ और
२.
बनना है गुरु का
ऐसा नही
हो ही गुरु के
बने रहने
गुरु का
शरण लो शास्त्र में
और किसी तरह
मुझे कैसे पकड़ोगे भाई।
३.
क्षुद्रता देख
उसके विश्लेषण में
रम गये अगर
छोड़ दिया ना मुझे
मैं जो विस्तार हूँ
आदि अन्त रहित प्यार हूँ
तुम्हारे सत्य का
आधार हूँ
मैं स्वयं
संवित् संस्कार हूँ
४.
भावना नही
आत्मीयता है,
सघन आत्मीयता
मेरे साथ तुम्हारी
जिसे लेकर
तुम्हारी आंख
डबडबाती है,
जिसे छू छूकर
कभी कभी
यह सावन भादों की
लड़ी लग जाती है,
इस तरह
भीग कर भी
हो रहे
प्रक्षालित,
गुरुमय मन
सदा सर्वदा
अविजित
५.
मेरी बात है
कविता तुम्हारी,
इसे स्वयं तक
रख कर
बढ़ाओगे अहंकार,
इसके द्वारा
पहुच रहा
संवित् साधक तक
मेरा होने का सार,
इसे संकुचित रखने का
नहीं तुम्हे कोई अधिकार,
अपने
मन - कर्म - वचन से
नित्य करो मेरा सत्कार,
६.
अब भी सन्देह है क्या ?
कि लिखते हो तुम
मैं नही लिखवाता हूँ
अब भी सोचते हो
तुम करते हो कुछ
या मैं तुम से करवाता हूँ
मेरा माध्यम
बने हुऐ हो तुम
यह निश्चित जानना
जब - जब
तुम्हारे भीतर मैं
शुद्ध समर्पण पाता हूँ।
७.
शुद्ध समर्पण
नहीं मिलेगा
बाजार में,
ना लेन - देन वाले
संकुचित व्यवहार में,
समर्पण तो है,
अमृत के लक्ष्य
में प्रतिष्ठित तुम्हारे
अन्तस् की
सहज रसधार में
८.
शब्द संग
जब तक
सुन सको
मेरा मौन
तब तक
स्पष्ट रहेगा
कि तुम
हो कौन ?
अपनी स्पष्टता
व्यवहार में लाओ
गुरूमय होने का उत्सव मनाओ
९.
तुम्हारी यात्रा
अनुभूति के लिये है
मेरी अनुभूति
मेरा अलावा
कोई और
कैसे दे पायेगा
मैं ही दूंगा ना
अपने आप को
जैसे दिया है
अब तक
जब संवित् साधक
गुरू प्रसाद हेतु
प्रस्तुत हो जायेगा।
१०.
मेरा रूप अब
सूक्ष्म है ना
पर सत्य है
अपनी
निर्मल संवेदना
सजगता से
सुरक्षित रख
चेतना के
सूक्ष्म स्तर पर
जब निश्चय
कर लोगे
गुरू द्वार तक
आओगे
फिर करो
थोड़ी प्रतीक्षा
अभी भीतर
बुलाये जाओगे
११.
मैं सुलभ
होकर भी
दुर्लभ तो
रहा हूँ ना
हमेशा
बस ऐसा ही है
संवित् साधनायन में
बैठ कर ही
आ रहे है ना
यह शब्द
ब्रह्म मुहर्त में
तुम्हारे द्वारा अभी मेरी
सन्निधि सघन है,
करो साधना
यदि मुझसे
मिलने का मन है।
१२.
एक से दूसरा
दूसरे से तीसरा
दीप श्रृंखला
प्रज्जवलित
गुरू मय
भाव ज्योति
जागेगी
जाग रही है
निरन्तर
तुम्हे कुछ
करना नहीं
साक्षी भर
होना है
मेरे उल्लास का
अरे भई कल्याणमय ही है
जीवन तुम्हारा
१३.
आया हूँ मै
आश्वस्त करने
प्रत्येक साधक को
तुम्हारे द्वारा
गया नही मैं
किसी के मन से
वहीं तो रहता आया
सत्यनिष्ठा का
शाश्वत रसमय गान लिये
प्रकटन मेरा
कर्त्तव्य नहीं
सहज अभिव्यक्ति है
तुम्हारे प्यार की
प्यार गुरू का मरता नहीं
अमर बनाता है।
१४.
शब्द सज्जा मात्र हैं
गुरु आविर्भाव का
संकेत मात्र
मिलना मुझे तो
शब्द से
परे जाकर ही
होगा ना
संभव,
शब्द - शब्द विस्तार
संवित् झंकार
जगदम्बा का
अनुग्रह
संवित् निधि
अपरम्पार
१५.
इसे कविता नहीं
समझना भाई
मौन में उतरने का
आह्वान है
गुरु का
उतरो अपने आप में
गुरू स्मरण
इष्ट स्मरण
आत्म स्मरण लेकर
श्रद्धा - भक्ति - ज्ञान से
पुष्ट
गुरू की
करूणा दृष्टि में
नहाओ,
संविन्मय होने का
उत्सव मनाओ
अच्छे से रहना भाई।